सवेरे की चाय का पहला घूँट लेते ही इरा ने मोबाइल साइलेंट पर रखा और खिड़की से बाहर देखा। सड़क के किनारे इमली का पुराना पेड़ था, जिसकी छाँव में अक्सर दोपहर की धूप टुकड़ों में बिखर जाती। वही धूप जैसे आज उसके भीतर भी टुकड़ों में उतर रही थी—हल्की, गर्म, और थोड़ी-सी चुभती हुई।
इरा पिछले पाँच साल से उसी मीडिया हाउस में काम कर रही थी। उसका पति राघव एक स्कूल में संगीत सिखाता था—बहुत सादा, बहुत संतुलित, और एक अजीब-सी धैर्य से भरा हुआ। “धीरे-धीरे सब ठीक हो जाता है,” वह अक्सर कहता। इरा को कभी-कभी लगता, क्या हर चीज़ सचमुच धीरे-धीरे ठीक होती है, या हम ही अपनी बेचैनियाँ धीमी आवाज़ में जीना सीख लेते हैं?
कबीर उसी हाउस में नया आया था—कॉपी हेड। आतंक-सी डेडलाइन्स के बीच उसे ठहरना आता था। एक दिन देर रात तक बैठना था; बिजली कड़क रही थी और ऑफिस के लॉबी में टिमटिमाती लाइटों का शोर अजीब-सा खालीपन पैदा कर रहा था। कबीर ने खिड़की से बाहर झाँका और धीरे से बोला, “बारिश पहले गिरती है, फिर भीतर की धूल से भी मिल जाती है। यही वजह है कि कुछ दिनों तक सब कुछ साफ़ दिखता है।”
इरा हँस दी, “यह डायलॉग तुमने कहीं से उठाया है या खुद लिखा?”
“ख़ुद,” उसने मुस्कुराकर कहा, “कभी-कभी हम शब्दों से कुछ ऐसा पकड़ लेते हैं, जो हाथों से किसी भी हाल में नहीं पकड़ा जा सकता।”
उस रात के बाद, अनगिनत कॉफी और छोटे-छोटे ईमेलों के बीच एक शांत-सा रेशमी ताना-बाना बुना जाने लगा। दोनों के पास अपनी-अपनी थकानें थीं, अपने-अपने खाली हिस्से, जहाँ कोई भी एकदम सहज होकर बैठ जाए तो अपनी धड़कन तक सुन सके। किसी ने किसी से कुछ माँगा नहीं, पर दोनों ने एक-दूसरे को बेआवाज़ बहुत कुछ दे दिया।
इरा जानती थी कि वह सीमा-रेखा कहाँ है—वह हद जो “हम” और “बाक़ी दुनिया” के बीच दूरी तय करती है। लेकिन एक दिन देर शाम, जब दोनों ने प्रूफ़ के आख़िरी पन्ने पर ‘ओके’ का निशान लगाया, सांस लेते हुए उसकी आँखें नम-सी हो गईं। “कभी-कभी मुझे लगता है, मैं बहुत अकेली हो जाती हूँ,” उसने कहा। यह वाक्य कोई शिकायत नहीं था, बस एक स्वीकार जैसा था।
कबीर ने कुछ नहीं पूछा। बस अपनी कुर्सी से थोड़ा-सा आगे झुक कर बोला, “अकेलापन किसी कोने में नहीं रहता—वह बीचों-बीच चुपचाप बैठकर भी अनदेखा बना रहता है। उसे नाम दे दो, तो वह कम खौफ़नाक लगता है।”
वह एक पल था—पतली-सी रेखा पर खड़ी हवा का। दोनों ने उस हवा को महसूस किया, उसकी ठंडक और उसके भीतर छुपी एक चिंगारी तक। वही पल, जब एक मुस्कान भी बहुत कुछ बदल सकती है, और एक खामोशी बहुत कुछ बचा सकती है।
उस रात घर लौटकर इरा ने राघव को देखा। वह बालकनी में गिटार ट्यून कर रहा था, चेहरे पर पुरानी-सी शांति। उसने उठकर पूछा, “कैसी रही रात?”
“जैसी हर रात,” इरा ने कहा और खुद से पूछ गई—क्या सचमुच?
अगले हफ्ते ऑफिस में एक बड़ा इवेंट था। स्टेज, स्क्रिप्ट, वक्ता—सबका दारोमदार इरा और कबीर पर था। काम के बोझ में वे दोनों वैसे ही डूब गए, जैसे कोई नदी चुपचाप किनारों की सीमा समझते हुए भी अपने अंदर बहुत कुछ बहा ले जाती है।
इवेंट खत्म होने के बाद पहली बार दोनों बाहर गए—ऑफिस कैफेटेरिया से थोड़ा दूर, सड़क किनारे वाले छोटे-से ढाबे पर। रात ठंडी थी, शोर कम। कबीर ने कहा, “तुम्हारी कहानियाँ सीधे खत्म नहीं होतीं; वे कहीं जाकर ठहरती हैं और फिर धीरे से चली जाती हैं।”
“मेरी कहानियाँ? मैं तो रिपोर्ट लिखती हूँ,” इरा हँसी।
“रिपोर्ट भी तो किसी की बात ही होती है, बस भाषा बदल जाती है,” उसने कहा।
एक पल के लिए दोनों की नज़रें मिलीं—उसमें कोई असभ्यता नहीं थी, कोई अतिक्रमण नहीं, बस एक ऐसा स्वीकार था जो कभी-कभी दोस्ती से भी नरम, और प्रेम से भी शांत होता है। लेकिन उसी पल की दरार में एक सवाल भी था—कहाँ तक?
अगले दिन सुबह, राघव ने डाइनिंग टेबल पर रखा दूध का गिलास धीरे से इरा की ओर सरकाते हुए पूछा, “तुम थक जाती हो न?”
“हूँ,” इरा ने बस इतना कहा।
“कभी-कभी हम लोग खुद से बहुत उम्मीदें बाँध लेते हैं,” उसने कहा, “और फिर किसी दूसरे के कंधे पर रखकर अपने थकान का बोझ नापते हैं। बोझ हल्का लगता है, पर कंधा आपका अपना नहीं होता। संभलकर।”
इरा चौंक गई। क्या राघव समझ गया? या वह बस एक साधारण-सा सच कह रहा था जो हर रिश्ते पर लागू होता है? उसने उस पल खुद से वादा किया—किसी रेखा को धुंधला नहीं होने देगी।
लेकिन रेखाएँ धुंध से नहीं मिटतीं, वे भीतर की खामोशी से मिटने लगती हैं। कबीर का एक मैसेज आया—“मीटिंग खत्म, कॉफी?” उसने फोन देखा, फिर कमरे की दीवार, फिर अपने भीतर का मौसम। उसने लिखा, “आज नहीं।”
उस दिन इरा ने काम के बाद घर जाना चुना। राघव ने धीमे-धीमे पुराने गीत बजाए, और बीच-बीच में मुस्कुराकर उसकी ओर देखा। वह समझ नहीं पा रही थी कि यह मुस्कान किसकी तरफ़ है—उसकी, उस संगीत की, या उस संभावना की, जो हर रिश्ते को फिर से सांस देती है?
कुछ दिन बीते। एक शाम कबीर ने बात शुरू की—“मैंने तुम्हें कभी दो हिस्सों में नहीं देखा—तुम जस की तस हो। पर हम दोनों के बीच जो है, उसे नाम देने की ज़रूरत नहीं। नाम मिलेंगे तो दायरों की दीवारें भी मिल जाएँगी। क्या तुम्हें डर लगता है?”
“डर नहीं,” इरा ने कहा, “जिम्मेदारी लगती है।”
“और अगर जिम्मेदारी सच्चाई से मिल जाए?”
इरा ने खिड़की के बाहर देखा। फीकी धूप जा रही थी और सड़क पर बच्चे पतंग के पीछे भाग रहे थे। “तो बचपन लौट आता है,” उसने कहा, “पर हम वापस बच्चे नहीं हो सकते।”
कबीर चुप हो गया। उस चुप्पी में कोई हार नहीं थी—एक स्वीकार था। अगले दिन इरा ने खिड़की के पास उसे खड़ा देखा। उसके हाथ में ट्रांसफर एप्लिकेशन था—“मैं मुंबई टीम में जा रहा हूँ। कुछ महीनों के लिए। शायद लंबा समय हो जाए।”
“क्यों?” उसके मुँह से अनचाहे निकला।
“क्योंकि धूप की एक महीन रेखा है, और उसे पार करने से पहले रुक जाना चाहिए,” उसने सीधा कहा, “तुम्हारे भीतर बहुत साफ़ पानी है, इरा। मैं उसमें अपने कदमों की मिट्टी नहीं चाहता।”
इरा ने पहली बार महसूस किया—सम्मान कभी-कभी पसंद के खिलाफ जाकर भी खड़ा हो सकता है, और वही मुश्किल फैसला किसी रिशते की सबसे बड़ी सुरक्षा बन जाता है।
मुंबई जाने से पहले की आख़िरी शाम, दोनों उसी ढाबे के बाहर खड़े थे। आकाश साफ़ था, सड़क पर पीले बल्बों की श्रृंखला थी। कबीर ने कहा, “एक बात कहूँ? अगर हम कभी मिले भी थे, तो शायद हमारी मुलाकात में वही सबसे महत्वपूर्ण था जो नहीं हुआ—जो हमने होने नहीं दिया।”
इरा ने सिर हिलाया। “कभी-कभी सबसे बड़ी ईमानदारी वही होती है जो हम अपने हिस्से की कमी में भी निभा लेते हैं।”
“तुम लिखना,” वह मुस्कुराया।
“तुम पढ़ना,” वह बोली।
टैक्सी आई। कबीर चला गया। सड़क पर रह गई उसकी हल्की-सी खुशबू, और इरा के भीतर थोड़ी-सी धूप—जो अब चुभती नहीं थी, बस उजाला करती थी।
कई महीने बाद, इरा ने एक फीचर लिखा—“सीमाएँ: रिश्तों की भाषा।” लेख में वह किसी का नाम नहीं लेती, किसी कथा का खुला जिक्र नहीं करती। बस उन महीन रेखाओं पर बात करती है जो हम सबको अदृश्य-सी सुरक्षा देती हैं। लेख पढ़कर राघव ने चुपचाप चाय बनाई और कप उसके आगे सरकाया—“तुम्हारा लिखना वापस लौटा है।”
“हाँ,” इरा ने कहा, “क्योंकि मेरे भीतर की धूल बैठ गई है।”
“और भीतर का अकेलापन?” राघव ने पूछा।
“वह कभी पूरी तरह जाता नहीं,” इरा बोली, “पर अब मुझे पता है, उसे कहाँ बैठाना है।”
राघव ने गिटार के तारों को धीरे-धीरे छुआ। कमरे में एक खुली-सी धुन बह चली। इरा ने महसूस किया—कुछ संगीत शब्दों से पहले होता है, और कुछ खामोशी शब्दों के बाद। उनके बीच का संगीत शायद हमेशा मौजूद था, बस ध्यान कहीं और बँटा था।
एक शाम, ऑफिस की लिफ्ट में एक नया लड़का आया—घबराया हुआ, नये शहर में नया काम। इरा ने मुस्कुराकर कहा, “डर लगता है? पहला दिन?”
“हाँ,” उसने कहा, “बहुत।”
“डर का नाम रख लो,” इरा हँसी, “कहना उससे—थोड़ा-सा साथ चलो, फिर अपने-आप पीछे रह जाना।”
लड़का मुस्कुरा दिया। लिफ्ट का दरवाज़ा खुला और इरा बाहर आ गई। उसे लगा, जीवन किसी भी दिन फिर से शुरुआत दे सकता है, बस हमें उस शुरुआत की जिम्मेदारी उठानी होती है। कबीर कभी-कभी ईमेल में एक किताब की पंक्ति भेज देता—बस एक पंक्ति, बिना संदर्भ के। वे पंक्तियाँ किसी पुराने दोस्त की तरह आतीं और खिड़की पर रखे छोटे कैक्टस की तरह शांत खड़ी रहतीं—कम पानी में भी जिंदा, रौशनी से डरती नहीं, और दूसरों की जगह नहीं घेरतीं।
बरामदे में रखी कुर्सी पर बैठकर एक दिन इरा ने अपनी हथेलियों को देखा। हर हथेली में कुछ रेखाएँ होती हैं—जन्म से मिली, समय के साथ गहरी होती हुई। पर कुछ रेखाएँ हम खुद खींचते हैं—धीरे-धीरे, सावधानी से। वे रेखाएँ भाग्य नहीं बदलतीं, पर हमें हमारा रास्ता दिखा देती हैं।
इरा ने मन ही मन एक रेखा खींची—धूप में, अपने लिए, अपने घर के लिए। उसे पता था, रास्ता आसान नहीं, पर सही है। उसने लैपटॉप खोला और लिखना शुरू किया—“कभी-कभी सबसे बड़ी कहानियाँ वे होती हैं जो हम अपने भीतर, चुपचाप पूरी कर लेते हैं; जिनका आख़िरी पन्ना किसी के हाथ में नहीं, अपने आत्मसम्मान की मेज़ पर रखा होता है।”
बाहर इमली के पेड़ से फूल गिरे। सड़क पर पीली धूप पिघल रही थी। और भीतर, उस महीन रेखा के इस पार, एक छोटा-सा उजाला स्थिर हो चुका था।