शनिवार, 25 अक्टूबर 2025

अधूरी लकीरें: Ek Prem Katha

 रोहन मेहरा दिल्ली के सबसे कामयाब आर्किटेक्ट्स में से एक था। उसकी डिज़ाइन की हुई इमारतें आसमान को छूती थीं, लेकिन उसकी अपनी ज़िंदगी ज़मीन पर बिखरी हुई महसूस होती थी। बाहर से सब कुछ परफेक्ट था—एक खूबसूरत पत्नी, अंजलि, जो एक प्रतिष्ठित कॉलेज में लेक्चरर थी, और एक प्यारी सी सात साल की बेटी, पिया। उनका घर किसी डिज़ाइन मैगज़ीन का पन्ना लगता था, हर कोना करीने से सजा हुआ। पर उन सजे हुए कोनों में एक ख़ामोशी थी, एक ऐसा ख़ालीपन जिसे रोहन शब्दों में बयां नहीं कर पाता था।

अंजलि और रोहन एक-दूसरे की इज़्ज़त करते थे, पर शायद प्यार की वो गर्मी वक़्त की धूल में कहीं खो गई थी। उनकी बातें अब घर के खर्चों, पिया की स्कूल की मीटिंग्स और सामाजिक ज़िम्मेदारियों तक सिमट कर रह गई थीं। रोहन को अक्सर लगता था कि वो एक किरदार निभा रहा है—एक सफल पति, एक अच्छे पिता का। पर असली रोहन कौन था, ये वो ख़ुद भी भूलता जा रहा था।

इसी दौरान उसे एक नए आर्ट गैलरी का प्रोजेक्ट मिला। यह प्रोजेक्ट उसके दिल के क़रीब था। उसे कला से हमेशा लगाव रहा था। गैलरी की क्यूरेटर ने उसे एक उभरती हुई आर्टिस्ट, मीरा शर्मा से मिलवाया।

मीरा, रोहन की दुनिया से बिल्कुल अलग थी। उसके कपड़ों पर रंगों के छींटे होते थे, उसके बाल बेतरतीब तरीक़े से बंधे रहते थे और उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी, जैसे वो दुनिया को किसी और ही नज़र से देखती हो। उसकी पेंटिंग्स में एक गहरा दर्द और एक अधूरी तलाश नज़र आती थी।

पहली मुलाक़ात काम को लेकर थी, लेकिन उनकी बातचीत जल्द ही कला, ज़िंदगी और सपनों पर आकर टिक गई। मीरा ने जब अपनी एक पेंटिंग का मतलब समझाया, "ये अधूरी लकीरें हैं... हम सब अपनी ज़िंदगी में कुछ लकीरें पूरी करने की कोशिश करते हैं, पर कुछ हमेशा अधूरी रह जाती हैं," तो रोहन को लगा जैसे किसी ने उसके अंदर के ख़ालीपन को कागज़ पर उतार दिया हो।


प्रोजेक्ट के सिलसिले में उनकी मुलाक़ातें बढ़ने लगीं। वो घंटों साथ बैठकर गैलरी के डिज़ाइन पर चर्चा करते। धीरे-धीरे ये मुलाक़ातें काम से हटकर कॉफ़ी शॉप्स तक पहुँच गईं। मीरा उसे अपनी छोटी सी आर्ट स्टूडियो में ले गई, जहाँ कैनवास और रंगों की महक फैली थी। उस छोटी सी दुनिया में कोई दिखावा नहीं था, बस कच्ची भावनाएँ थीं।

रोहन ने सालों बाद किसी से अपने अधूरे सपनों के बारे में बात की थी। उसने बताया कि वो कैसे एक संगीतकार बनना चाहता था। मीरा ने बिना जज किए उसकी हर बात सुनी। वो उसके साथ हँसती थी, उसकी ख़ामोशी को समझती थी। रोहन को महसूस हुआ कि मीरा उसे एक 'आर्किटेक्ट' या 'पति' के तौर पर नहीं, बल्कि सिर्फ़ 'रोहन' के तौर पर देख रही थी। यह एहसास नशे की तरह था।

उसे पता था कि वो ग़लत रास्ते पर है। हर बार मीरा से मिलकर घर लौटते हुए उसके सीने पर एक भारी बोझ होता था। अंजलि का मुस्कुराता चेहरा उसे अपराधबोध से भर देता था। वो ख़ुद से वादा करता कि ये आख़िरी मुलाक़ात होगी, पर अगले ही दिन मीरा का एक मैसेज आता और वो सारे वादे तोड़ देता।

एक शाम, दिल्ली में तेज़ बारिश हो रही थी। वो दोनों एक कैफ़े में फँस गए। बाहर तूफ़ान था और अंदर एक ख़ामोश तूफ़ान उन दोनों के बीच उठ रहा था। मीरा ने धीरे से रोहन का हाथ पकड़ा और कहा, "तुम इतने अकेले क्यों लगते हो, रोहन?"

उस एक सवाल ने सारे बाँध तोड़ दिए। रोहन कुछ नहीं बोला, बस उसकी आँखों में देखता रहा। उस पल में कोई शब्द नहीं थे, सिर्फ़ दो दिलों की खामोश सहमति थी। वो एक ऐसी लकीर पार कर रहे थे, जहाँ से वापसी मुमकिन नहीं थी।


अब रोहन की ज़िंदगी दो हिस्सों में बँट चुकी थी। एक दुनिया अंजलि और पिया की थी, जहाँ वो अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभाता था। दूसरी दुनिया मीरा की थी, जहाँ वो ख़ुद को ज़िंदा महसूस करता था। वो झूठ बोलने में माहिर हो गया था—देर रात तक "साइट पर मीटिंग" होती, फ़ोन पर "क्लाइंट के कॉल्स" आते।

उसका फ़ोन अब हमेशा पासवर्ड से लॉक रहता। वो अंजलि की नज़रों से बचता था। पिया जब उससे पूछती, "पापा, आप आजकल मुस्कुराते क्यों नहीं हो?" तो उसका दिल कटकर रह जाता।

मीरा के साथ वो ख़ुश था, पर ये ख़ुशी चोरी की थी। उसे पता था कि वो मीरा को कोई भविष्य नहीं दे सकता। मीरा ने भी कभी उससे कोई वादा नहीं माँगा। शायद वो भी जानती थी कि उनका रिश्ता एक ख़ूबसूरत लेकिन अस्थायी बुलबुले की तरह है, जिसे एक दिन फूटना ही था।

एक दिन रोहन, मीरा के जन्मदिन के लिए एक महँगी घड़ी ख़रीदकर लाया। उसने उसे अपनी गाड़ी में छिपा दिया। उसी शाम, अंजलि ने रोहन का कोट धोने के लिए निकाला तो उसकी जेब से उस घड़ी का बिल निकल आया। बिल पर तारीख़ और दुकान का नाम था, पर घड़ी घर में कहीं नहीं थी।

अंजलि ने कुछ नहीं कहा। उसने उस बिल को वापस जेब में रख दिया। पर उस रात से, उसके अंदर कुछ टूटना शुरू हो गया था। उसने रोहन के व्यवहार में छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देना शुरू किया—उसका फ़ोन छिपाना, देर रात तक जागना, और वो अनजानी सी ख़ुशबू जो कभी-कभी उसके कपड़ों से आती थी।


अंजलि ने हफ़्तों तक यह बोझ अपने अंदर रखा। वो सबूत नहीं, सच्चाई जानना चाहती थी। एक रात, जब रोहन सो रहा था, उसने काँपते हाथों से उसका फ़ोन उठाया। उसे पासवर्ड पता था—उनकी बेटी का जन्मदिन। गैलरी में मैसेजेस भरे पड़े थे। मीरा के संदेश, उनकी तस्वीरें, उनके वादे।

अंजलि की दुनिया एक पल में ढह गई। आँसू उसकी आँखों से बह रहे थे, पर आवाज़ नहीं निकल रही थी। वो पूरी रात बालकनी में बैठी रही, अपने बिखरे हुए भरोसे के टुकड़ों को समेटने की कोशिश करती रही।

अगली सुबह, जब रोहन उठा, अंजलि लिविंग रूम में बैठी उसका इंतज़ार कर रही थी। उसके सामने टेबल पर रोहन का फ़ोन रखा था। रोहन सब समझ गया। उसके पास कहने के लिए कुछ नहीं था। कोई सफ़ाई, कोई बहाना नहीं।

अंजलि की आवाज़ शांत थी, पर उस शांति में सालों का दर्द था। "मैं आपसे नफ़रत भी नहीं कर पा रही, रोहन," उसने कहा। "बस अफ़सोस हो रहा है... उस भरोसे पर जो मैंने आप पर किया। आपने सिर्फ़ मुझे नहीं, हमारी बेटी के सपनों को भी धोखा दिया है।"

रोहन की नज़रें झुकी हुई थीं। ज़िंदगी में पहली बार उसे अपनी बनाई हुई इमारतें खोखली लग रही थीं।

उसने मीरा को फ़ोन करके सब बता दिया। मीरा की आवाज़ में भी एक ठहराव था। "मैं जानती थी ये दिन आएगा, रोहन। शायद हम दोनों ही किसी चीज़ से भाग रहे थे। पर अब भागने का वक़्त ख़त्म हो गया।"


कुछ महीनों बाद, रोहन एक नए, ख़ाली अपार्टमेंट में अकेला रहता था। उसका और अंजलि का तलाक़ हो चुका था। पिया हफ़्ते में एक बार उससे मिलने आती थी, पर अब उनकी बातचीत में वो पहले जैसी गर्मजोशी नहीं थी।

उसने आर्ट गैलरी का प्रोजेक्ट पूरा कर दिया था, पर वो दोबारा कभी वहाँ नहीं गया।

एक दिन उसे मीरा का एक ख़त मिला। उसने लिखा था कि वो शहर छोड़कर जा रही है। उसने लिखा, "मैं उस ख़ुशी के लिए तुम्हारा शुक्रिया करती हूँ जो तुमने मुझे दी, भले ही वो उधार की थी। पर अब मुझे अपनी ख़ुद की लकीरें बनानी हैं, किसी और की अधूरी कहानी का हिस्सा बनकर नहीं। उम्मीद है तुम भी अपनी टूटी हुई लकीरों को जोड़ पाओगे। अलविदा।"

रोहन ने ख़त को मेज़ पर रख दिया। उसकी नज़रें खिड़की के बाहर फैले शहर पर थीं। उसने अपनी ज़िंदगी की इमारत बहुत ऊँची बनाई थी, पर उसकी नींव ही कच्ची थी। आज वो ज़मीन पर था, अपनी ग़लतियों के मलबे के बीच।

उसने अपनी डायरी खोली और सालों बाद लिखना शुरू किया। शायद अपनी अधूरी लकीरों को जोड़ने का यही एक तरीक़ा बचा था—उनको स्वीकार करके, एक नई शुरुआत करना। भले ही ये शुरुआत अकेली और मुश्किल हो।

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